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लेख

संचार माध्यम और भारतीय संस्कृति

कृपाशंकर चौबे


भारतीय समाज वाचिक संचार का समाज रहा है। मुद्रित और दृश्य-श्रव्य माध्यमों के आने पर भी वाचिक परंपरा समाप्त नहीं हुई। पारंपरिक और आधुनिक संचार माध्यमों ने जनता में देश की कलात्मक और सांस्कृतिक विरासत के प्रति समझ पैदा की है। भारत के विभिन्न समुदायों, समाजों, क्षेत्रों की विशिष्ट पहचानों, रीति-रिवाजों और परंपराओं को खोए बिना उन्हें एक सूत्र में पिरोया है। संचार माध्यम चूँकि राष्ट्रीय विरासत और संस्कृति के प्रति जनता को संवेदनशील बनाने वाले उपकरण रहे हैं इसलिए उनकी उपेक्षा कर हम भारतीय संस्कृति को नहीं समझ सकते। दोनों में एक अन्योन्याश्रित संबंध रहा है।

प्राचीन काल में मानव ने प्रकृति से संघर्ष करते हुए अपने अस्तित्व को बचाए रखा और समूह में रहना शुरू किया। आदिमानव अपने सहयोगियों के साथ शिकार के दौरान संकेतों और ध्वनियों से संचार करता था। पाषाण काल में ही मनुष्य ने गुफा चित्रण आरंभ कर दिया था। अनेक आदिमानव समाजों ने अपनी गुफाओं में भिति चित्रों की सहायता से अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया। दुनिया के अनेक हिस्सों में इस प्रकार के चित्र मिले हैं। मध्यप्रदेश के भीम बेटका में शिकार करते मानव के चित्र मिले हैं जिन्हें संचार का आदिम रूप माना जाता है। अजंता की गुफाओं में बौद्ध संस्कृति तथा भारतीय कला का अनुपम संयोग देखा जा सकता है। अजंता की कला बुद्ध की प्रशांत मुद्रा से पवित्र और भारतीय सौंदर्य की पूर्ण रेखाओं में सजीव है। देश के विभिन्न हिस्सों के आज भी विभिन्न आदिवासी समूह खजूर के पत्ते, कांसी घास, पत्थर, लकड़ी से बनी दैनिक उपयोग और सजावट की चीजें इतने करीने से बनाते हैं कि उनका उन्नत हस्तशिल्प तथाकथित सभ्य समाज को चकित कर देता है। इसी तरह प्राचीन काल के गाँवों के घरों की दीवारों पर, औरतों की रंगोली में कला सृजन होता था। गाँव के जीवन के साथ लोक कला थी और जीवंत रूप में थी और आज भी है। भारतीय चित्रकला मिथकों से भरी पड़ी है। विषय वस्तु ही भारतीय चित्रकला, मूर्ति कला, स्थापत्य कला को पाश्चात्य कला से अलगाती है। भारतीय कला की विषय वस्तु में भारतीय संस्कृति का खजाना है। भारतीय कला की आधुनिकता तक की यात्रा में बहुत परिवर्तन आए। पहले भारतीय कला में धर्म तथा अध्यात्म की बहुलता थी, आधुनिक समय में उसकी जगह सामाजिक सरोकारों ने ले ली। अवनींद्रनाथ ठाकुर ने कूची, कैनवास और रंग के साथ भारत के स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया था। उन्होंने भारत माता की जो पेंटिंग बनाई थी, उसने पूरे बंगाल के विप्लवियों में नई ऊर्जा का संचार किया था। विप्लवी जुलूसों में वह चित्रकृति लेकर जाते थे। भारतीय चित्रकला में नवजागरण लानेवाले अवनींद्रनाथ टैगोर ने देसी विषयवस्तु को लेकर नए से नए प्रयोग किए और कला आंदोलन को आधुनिक मोड़ पर पहुँचाया। उसी तरह नंदलाल बसु ने भित्तिचित्र को नई अर्थवत्ता दी। रामकिंकर बैज, केजी सुब्रमण्यन, गणेश पाइन, चिंतामणि कर, जोगेन चौधरी जैसे शिल्पियों ने उस काम को आगे बढ़ाया। पर सबने भारतीय जीवन के यथार्थ को सामने रखकर ही आधुनिकता को आगे बढ़ाया। स्वयं रवींद्रनाथ ठाकुर ने विदेशों की यात्रा के दौरान पाश्चात्य चित्रकला को देखा तो उस आधुनिकता को हृदयंगम किया और भारतीय दर्शन और अनुभव के संस्पर्श से स्वकीय चेतना से चित्र बनाए। चित्रकला के दो प्रमुख प्रकार हैं। एक जो प्राचीन काल से गाँवों में है। दूसरी आधुनिक कला। प्राचीन काल से चली आ रही लोककला आम जीवन के अनुभवों और प्रयोजनों के बीच विकसित होती गई है। भारत के सुदूर गाँवों में दीवारों पर, कपड़ों पर एक से बढ़कर एक नक्काशी और कला देखकर किसी को भी विस्मय हो सकता है। आज भी सुदूर गाँवों में अनपढ़ बूढ़ी स्त्रियाँ दीवारों पर, तकिए की खोल पर, चादर पर जो चित्रकारी कर देती हैं, उनकी कला हमें बरबस मुग्ध करती है। दिलचस्प यह है कि वह कला उन्होंने किसी फाइन आर्ट्स कालेज से नहीं सीखी है। कहने का आशय यह है कि पारंपरिक और आधुनिक दोनों कलाओं का अलग महत्व है। दोनों अपने आपमें संस्थाएँ हैं। दोनों ने अपने-अपने सामाजिक ढाँचे में विकास किया है। पारंपरिक कला ने गाँवों में और अकादमिक कला ने शहरों में। भारत के संदर्भ में दोनों सत्य हैं और दोनों के आईने में हम भारतीय संस्कृति को समझ सकते हैं।

प्राचीन काल में कला के बाद जनसंचार का माध्यम गीत, संगीत और नृत्य हुआ करते थे। आदिम समाजों में सामूहिक नृत्य-गीत-संगीत की गतिविधियों से इस संदेश का संचार होता था कि वे आपस में गहरे जुड़े हुए हैं। वे आदिम समाज उन गतिविधियों को एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक सौंपते रहे। दक्षिण भारत के द्रविदायन, अंगलगर, मूठनकंपति और खूरयनुर, लंबदी, भट्ट तुर्का, बोयाडोंगा, बेराड बैगिया, बुडा बुक्कला, गखल, पमूला, देसारी, डोंगा, गुडा, डोमार, रेड़्डी घासी, इसलर, जोगी, जगुला, कलादी, परचार, कल्लर, पेरामलैया, कुटरपाल, पेरिया, सुरियुर, कंजार, महाराष्ट्र के लमानी, भमता, टकारी, भील, बेराड़ बोया, कैयादी, कंजार, मानगरूदी, निरसाकारी, तदवी, उत्तर प्रदेश के बड़क, बधीक, बंजारा, वंजारी, लांभ, लंबादी, बरवाड़, बौरिया, मोंगिया, बेदया, भांटु, भर, बोरिया, चमार, दलरिया, डोम, दुसाध, गंधीला, घोसी, गुजर, हबूर, कंजार, करवल नट, केवट, खटीक, लोधा, मल्लाह, मेवाटी, मुसहर, पासी, सनसिया, तागाभट, अहरिया, मध्य प्रदेश के बैरागी, राजस्थान में बंजारा, वंजारी, बौरिया, मारवाडी मोगिया, वैद्य, भानमत, भट, भील, बिजोरिया, चंद्रवेदी, सोनारी, सेनुरिया, मीना, चौकीदार, मुलतानी, नायक, निरशिकारी, नट, पासी, सनसिया, बिहार के लोधा, बोरिया, धारी, धेकारू, वंशफोर डोम, दुसाध, चकई महिमा दुसाध, करवालनट, मसहरा, उड़ीसा के दनदासी, घासी जंत्रपन, मुंडा पोटटा, पैदी, तलेगा, पामुला, पद्दाती पश्चिम बंगाल के भर, डोम, ओड़िया डोम, गंडा, करवाल नट, लोधा और खेड़िया शबर आदिवासियों ने आज भी अपने पारंपरिक गीत-नृत्य-संगीत को बचाकर रखा है। आदिवासियों का सामूहिक नृत्य-गीत-संगीत भी विस्मित करता है। बंगाल में उत्सव के दौरान शबर आदिवासी जब एक संग नाच-गा रहे होते हैं और उसके सारे वाद्य भी एक साथ बज रहे होते हैं तो लगता है जैसे उनमें प्रकृति की समूची आवाजें अपने मूल स्वरूप और आदिम राग के साथ मौजूद हों। सहस्त्रों वर्षों से शबर आदिवासियों के गीत-नृत्य-संगीत की नैसर्गिक मुद्रा जस की तस है। हर काल और परिस्थिति में आदिवासियों ने अपनी संस्कृति को बचाकर रखा है।

संगीत की परंपरा बहुत पुरानी है। वह वैदिक काल से ही चली आ रही है। सामवेद संगीत का आदि स्रोत माना जाता है। भारत में लोक गीत, लोक संगीत, लोक नृत्य, लोक नाट्य और लोक कथा की बहुत पुरानी परंपरा रही है। भारत के गाँवों में जन्म से लेकर मुंडन, विवाह तक लोक गीत गूँजता रहा है। जन्म में सोहर गूँजता है तो विवाह के समय सगुन, चउका, चुमावन, संझा पराती, मंडप, मटकोर, हल्दी चढ़ाई, इमली घोंटाई, द्वारा पूजा, परिछन, कोहबर, उबटन, नहवावन के गीत। गाँवों में रोपनी, सोहनी, कटनी, गंगा नहान तक लोक गीत गूँजता रहा है और चौता जैसे लोक गीत तो जनसंचार के बड़े माध्यम ही रहे हैं। उन लोक माध्यमों के अलावा शास्त्रीय संगीत और उप शास्त्रीय संगीत भी जनसंचार के बड़े माध्यम रहे हैं। सोलहवीं शताब्दी में तानसेन ने भारतीय संगीत को जो ऊँचाई दी, उसे भारत में संगीत के अनेक घरानों ने आधुनिक काल में आगे बढ़ाया। भारतीय भाषाओं में जितने लोक गीत हैं, उन सबमें मनुष्य सबसे ऊपर है। पंद्रहवीं शताब्दी में बांग्ला के मशहूर कवि चंडीदास ने कहा था : सबार ऊपोरे मानुष सत्य। ताहार ऊपरे नाई। यानी मनुष्य से ऊपर कोई नहीं है। पंद्रहवीं शताब्दी में ही बाउल संगीत की रचना हुई थी। दुधू शाह जैसे बाउल ने गाया : जो खोजे मानुषे खुदा सेई तो बाउल। यानी जो मनुष्य में खुदा को खोजे, वही बाउल है। भारतीय संस्कृति में लोक को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। लोक कोरे मनुष्य नहीं, पहाड़, समुद्र, नदी, सभी वनस्पति, सारे जीव-जंतु से बनता है और भारतीय संस्कृति चूँकि पेड़-पौधों, दूब-पत्ते तक में यानी समूची प्रकृति में दैवी सत्ता का साक्षात्कार करती है, इसीलिए वह उद्दात है। इसी उद्दात संस्कृति को आधुनिक काल में शास्त्रीय गायन में पं. जसराज, भीमसेन जोशी, गिरिजा देवी, सितारवादन में पं. रविशंकर, सरोदवादन में अमजद अली खान, वायलिन में वी.जी. जोग, शहनाई में बिस्मिल्ला खाँ, बाँसुरी में हरि प्रसाद चौरसिया, तबलावादन में किशन महाराज और जाकिर हुसैन, नृत्य में उदय शंकर और बिरजू महाराज ने देश-विदेश में फैलाया और पश्चिम की दुनिया उसकी तरफ इसलिए मुग्ध होती आई क्योंकि पाश्चात्य संगीत से भारतीय शास्त्रीय संगीत बिल्कुल अलग है और वह समस्त ब्रह्मांड के मंगल की कामना करता है। 'सर्वे भवन्ति सुखिनः', 'वसुधैव कुटुंबकम्' सिर्फ सूक्तियाँ नहीं, भारतीय दर्शन के सूत्र हैं। ऋग्वेद में भी कहा गया हैः विश्व पुष्टं ग्रामे अस्मिन अनातुरम। अथर्ववेद में भी कहा गया है : सर्वा आशा मम मित्रं भवंतु। इसी कामना को हमारे लोक संगीतकार, शास्त्रीय व उप शास्त्रीय संगीतकार, सुगम संगीतकार अपने गायन में अभिव्यक्त करते रहे हैं।

नृत्य भी हमारे यहाँ प्राचीन काल से चला आ रहा है। भगवान शिव नृत्य कला के जनक माने जाते हैं। धार्मिक तथा सामाजिक अवसरों पर जनता में नृत्य की प्रथा प्रचलित थी। नौटंकी (उत्तर प्रदेश), जात्रा (बंगाल), तमाशा (महाराष्ट्र), भवाई (गुजरात), छऊ नृत्य जैसे परंपरागत साधन ही जनसंचार के माध्यम थे। हबीब तनवीर और उत्पल दत्त ने परंपरागत लोक नाट्य का अपने रंगमंच में भरपूर प्रयोग किया। इसी तरह कथक, कथकली, भरतनाट्यम, कुचीपुड़ी, मोहिनीअट्टम, ओडिशी, मणिपुरी जैसी नृत्य शैलियां जनसंचार के लिए प्रयोग में लाई जाती रही हैं। लगभग सभी नृत्य शैलियां देवी-देवताओं की स्तुति के माध्यम से भारतीय संस्कृति का संधान करती रही हैं। उदाहरण के लिए प्रायः सभी नृत्य शैलियाँ जयदेव के गीत गोविंद पर प्रस्तुतियां देती हैं। दृश्य-श्रव्य माध्यम के विकसित होने के बाद परंपरागत और आधुनिक माध्यमों का एक साथ प्रयोग हो रहा है। इसे माध्यम सम्मिश्रण (मीडिया मिक्स) कहते हैं।

भारतेंदु ने 1874 में 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' निकाली जिसमें पुरातत्व संबंधी लेख छपते थे। उसके बाद 1877 में बालकृष्ण भट्ट के संपादन में निकले 'हिंदी प्रदीप' ने कालिदास, श्री हर्ष, भवभूति, बिल्हण, बाण, त्रिविक्रम भट्ट, भारवि, क्षेमेंद्र गोवर्धन आदि कवियों की जीवनी, श्रीमद्भागवत् गीता, वाराही संहिता, दुर्गा सप्तशती की आलोचनाएँ, नल दमयंती, किरातार्जुनीयम जैसे नाटक और देश के प्राचीन इतिहास और नगरों, नदियों और पर्वतों का परिचय प्रकाशित किया। भट्ट जी के बाद महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' को ज्ञान के सभी अनुशासनों के लिए मंच बनाया और साहित्य को कलाओं से जोड़ा। द्विवेदी जी ने संगीत कला पर स्वयं कई लेख लिखे। उन्होंने 'सरस्वती' के अक्टूबर 1907 अंक में गायनाचार्य विष्णु दिगंबर पुलस्कर और 'सरस्वती' के नवंबर 1907 के अंक में संगीत के स्वर शीर्षक सुविचारित लेख लिखे। जब द्विवेदी जी 'सरस्वती' को संस्कृति से जोड़ने में लगे थे, उसी समय ऋषि अरविंद अध्यात्म के रास्ते संस्कृति की खोज कर रहे थे। 'वंदेमातरम' के 29 मार्च 1908 के अंक में स्पिरिचुअलिटी ऐंड नेशनलिज्म शीर्षक टिप्पणी में श्री अरविंद ने लिखा था, "पूरब ही पश्चिम को मार्ग दिखा सकता है। पूरब ही मानव जाति की रक्षा कर सकता है।" श्री अरविंद यह दावा नहीं करते कि भारत जगतगुरु होगा। वे सिर्फ राह दिखाने की बात करते हैं। जैसे कभी गौतम बुद्ध ने अहिंसा का रास्ता दुनिया को दिखाया था।

बहरहाल महावीर प्रसाद द्विवेदी के उपरांत शिवपूजन सहाय, निराला और प्रेमचंद की पत्रकारिता अलग-अलग कोण से भारतीय संस्कृति का संधान करती है। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी 'विश्वभारती पत्रिका' में यह संधान किया। द्विवेदी जी ने 'विश्वभारती पत्रिका' के जनवरी 1942 में निकले प्रवेशांक में रवींद्रनाथ ठाकुर का लेख 'एशिया की जागृति में ही यूरोप का परित्राण है', राजेंद्र प्रसाद का लेख 'अहिंसात्मक साध्य और साधन', क्षितिमोहन सेन का लेख 'भारतीय संस्कृति के अध्ययन की एक उपेक्षित दिशा' प्रकाशित किया। द्विवेदी जी ने 'विश्वभारती पत्रिका' के जुलाई 1942 के अंक में विनोद बिहारी मुखर्जी का लेख 'अवनींद्रनाथ ठाकुर और परवर्ती चित्रकला', जनवरी 1943 के अंक में विद्याधर वझलवार का लेख 'संगीत और कंठसाधन' तथा भगवान दास का लेख 'हिंदुत्व में विभिन्न संस्कृतियों का समन्वय', अक्टूबर 1943 के अंक में तान युन शान का लेख 'चीन की सभ्यता और संस्कृति का विकास', अप्रैल 1944 के अंक में वासुदेव शरण अग्रवाल का निबंध 'कटाह द्वीप की समुद्र यात्रा', अप्रैल 1945 के अंक में शांति भिक्षु का लेख 'बुद्ध के समय का सामाजिक जीवन', जनवरी 1946 के अंक में जगदीश चंद्र जैन का लेख 'भारत के कुछ प्राचीन नगर', अक्टूबर 1946 के अंक में रवींद्रनाथ ठाकुर के लेख हिंदू-मुसलमान प्रकाशित कर भारतीय संस्कृति को समझने की एक दृष्टि दी। लेकिन इस दिशा में सबसे ठोस काम करनेवाली पत्रिका 'विश्ववाणी' थी।

भारतीय संस्कृति पर सबसे प्रामाणिक किताब 'भारत और मानव संस्कृति' है। प्रकाशन विभाग द्वारा दो खंडों में प्रकाशित उस किताब के लेखक हैं विशंभरनाथ पांडे। पांडे जी किताब में दो शब्द शीर्षक अपने लेखकीय वक्तव्य के आरंभ में ही स्वीकार करते हैं, "प्रस्तुत ग्रंथ भारत और मानव संस्कृति की प्रेरणास्रोत सांस्कृतिक पत्रिका 'विश्ववाणी' थी।" हिंदी मासिक पत्रिका 'विश्ववाणी' का प्रवेशांक पांडे जी ने ही जनवरी 1941 में निकाला था। पत्रिका का नामकरण गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने किया था। वह पत्रिका 1956 तक निरंतर निकलती रही। पाठकों और विद्वानों ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। गांधी जी ने लिखा थाः 'विश्ववाणी' का एक-एक अंक पुस्तक के समान है। मैंने चीन अंक रख लिया है। उसे फुर्सत निकालकर पढ़ूँगा। 'विश्ववाणी' ने विश्व के सांस्कृतिक इतिहास पर डेढ़ दर्जन विशेषांक निकाले। 'विश्ववाणी' की सामग्री से आठ पुस्तकें छपीं जिनमें एक 'विश्व सभ्यता और संस्कृति' पुस्तक को कई विश्वविद्यालयों ने अपने पाठ्यक्रम में शामिल किया। विशंभरनाथ पांडे ने दो शब्द में लिखा है कि 'विश्ववाणी' के लेखों से 'भारत और मानव संस्कृति' किताब में पर्याप्त सहायता ली गई है। वे लिखते हैं कि 'विश्ववाणी' में प्रकाशित जिन प्रतिष्ठित विद्वानों की रचनाओं से इस पुस्तक के लेखन में मैंने सहायता ली है, उनके प्रति मैं अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ। किताब के पहले खंड में भारत की अखंडता, भारत की सभ्यता, भारतीय दर्शन, भारतीय ज्ञान-विज्ञान, भारतीय नृवंश, वेद वेदांग, महाभारत, रामायण, गीता और उपनिषद पर आधुनिक दृष्टि से प्रकाश डाला है। दूसरे खंड में पांडे जी ने भारत और ईरान के सांस्कृतिक संबंध, वेद और अवस्ता, यूरोप में मित्र देवता की उपासना, आर्य वैदिक सभ्यता और टर्की, प्राचीन मिस्री संस्कृति और वैदिक विचारधारा, सुमेर का सांस्कृतिक वैभव, मेसोपोटामिया की प्राचीन संस्कृति, यूरोपीय संस्कृति का गहवारा : यूनान, यहूदी संप्रदाय और भारतीय संस्कृति, इस्लाम और भारत, इस्लामी जीवन दर्शन, अरब और हिंद के सांस्कृतिक संबंध, भारत और इस्लामी अरब, तसव्वुफ और वेदांत, थाइलैंड और भारत, अन्नम और भारतीय संस्कृति, सुमात्रा और भारत, जावा और भारत, चीनी सभ्यता और संस्कृति, चीनी जीवन का बौद्ध धर्म पर प्रभाव, भारत और चीन की सांस्कृतिक एकता, फाहियान की भारत यात्रा, भारत और जापान : सांस्कृतिक आदान-प्रदान, मेरा परिचय-मैं श्याम वर्ण अफ्रीका, अश्वेत अफ्रीका की सांस्कृतिक भूमिका, अफ्रीकी संस्कृति और संगीत, पीड़ित अफ्रीकियों की सर्द आहें, मैक्सिको की प्राचीन मय (माया) संस्कृति, प्राचीन मैक्सिको का सामाजिक जीवन और प्राचीन मैक्सिकोवासियों के धार्मिक विश्वास का वर्णन और विवेचन किया है। इस तरह लेखक ने विश्व संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में भारतीय संस्कृति का आकलन और मूल्यांकन किया है। वैदिक संस्कृति, आर्य संस्कृति, जैन संस्कृति, बौद्ध संस्कृति, सिख संस्कृति का जैसा सांगोपांग विवेचन पांडे जी ने किया है, उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती। पांडे जी की स्थापना है कि भारत का समस्त मानव समाज एक कुटुंब, बल्कि एक शरीर की तरह है। रवींद्रनाथ ठाकुर भी अपनी प्रसिद्ध कविता 'भारत तीर्थ' में भी यही बात कहते हैं - 'आर्य, अनार्य, द्रविड़, चीनी, शक, हूण, पठान, मुगल सब यहाँ एक देह में लीन हो गए।' यह देह ही भारतबोध है। पांडे जी कहते हैं कि इस देश की अखंड एकता ही भारत की अमर आत्मा है। हमारे अलग-अलग धर्मों, अलग-अलग संप्रदायों, तरह-तरह के रीति-रिवाजों, संस्थाओं, उद्योग-धंधों, कला चित्रकारियों, विद्याओं और दर्शन शास्त्रों के अंदर व्याप्त होकर यही एकता उन सबको एक सुंदर, सर्वांगीण भारतीय जीवन के अंग-प्रत्यंग बनाए हुए है। इसी स्थापना को गांधी ने 'यंग इंडिया' के 30 अप्रैल 1931 के अंक में दूसरे शब्दों में कहा था, "भारतीय संस्कृति भारतीय है। यह न पूरी तरह हिंदू है न इस्लामी न कोई अन्य। यह इन सबका मिला-जुला रूप है और मूलतः पूर्वी है। जो व्यक्ति स्वयं को भारतीय कहता है, उसका यह कर्तव्य है कि इस संस्कृति की कद्र करे, इसका न्यासी बने और इस पर कोई आंच आए तो उसका प्रतिकार करे।" यही स्वर दिनकर की कृति 'संस्कृति के चार अध्याय' का है। मुद्रित माध्यमों ने इसी भारत बोध के लिए रचनात्मक संघर्ष किया। 'माधुरी', 'मतवाला', 'प्रतीक', 'कल्पना', 'धर्मयुग', 'साप्ताहिक हिंदुस्तान', 'जनसत्ता' की सांस्कृतिक पत्रकारिता इसी बोध पर टिकी रही है। कपिला वात्यासन के लेखन का स्रोत भी यही बोध रहा है। पिछले पाँच दशकों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अपने स्तंभों तथा टिप्पणियों में कवि अशोक बाजपेयी इसी बोध के साथ सांस्कृतिक लेखन कर रहे हैं। उसी की अगली कड़ी प्रयाग शुक्ल, विनोद भारद्वाज, ज्योतिष जोशी, मंजरी सिन्हा, रवींद्र मिश्र, रवींद्र त्रिपाठी के सांस्कृतिक लेखन से जुड़ती है।

भारत में आकाशवाणी और दूरदर्शन को सरकारी भोंपू कहा गया, दूरदर्शन को इडियट बाक्स तक कहा गया किंतु संस्कृति के संरक्षण में इन्हीं माध्यमों ने सबसे अधिक योगदान किया और आज भी कर रहे हैं। आकाशवाणी ने कई ऐतिहासिक नाटकों और शास्त्रीय संगीत और सुगम संगीत का प्रसारण किया। देश का शायद ही कोई प्रमुख संगीतशिल्पी हो जिसकी कला का प्रसारण आकाशवाणी के किसी न किसी केंद्र से न हुआ हो। आकाशवाणी ने भारतीय कला व संस्कृति का सतत प्रचार किया और श्रोताओं को सांस्कृतिक रूप से सचेत किया। दूरदर्शन ने भी नेहरू की 'द डिस्कवरी आफ इंडिया' पर आधारित 'भारत एक खोज' जैसा लंबा धारावाहिक दिखाकर दर्शकों को नया इतिहास बोध दिया था। वह धारावाहिक 'रामायण' और 'महाभारत' धारावाहिकों के दौर में ही आया था। दूरदर्शन के 'सुरभि' जैसे कार्यक्रमों ने भारत की सांस्कृतिक धरोहर से दर्शकों को परिचित कराया। विवेकानंद के जीवन चरित पर आधारित धारावाहिक ने भी दर्शकों को सांस्कृतिक रूप से सचेत किया। वह धारावाहिक दिखाता है कि विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस ने इस्लाम, ईसाइयत और सांख्य के मार्ग से ईश्वर को खोजा तो भक्ति के मार्ग से भी खोजा। उन्होंने सब तरफ से प्रयोग कर देखा और पाया कि सभी रास्ते ईश्वर के पास पहुँचते हैं। परमहंस की इस वाणी को आत्मसात करते हुए विवेकानंद जोर देकर कहते हैं कि सभी धर्मों का मूल तत्व एक है। वह है, ईश्वर को जानना और उससे तदाकार हो जाना। इस तरह विवेकानंद सभी धर्मों की बुनियादी एकता पर बल देते हैं। गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने कहा था, "यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।" और विवेकानंद ने कहा था, "उठो, जागो और स्वयं जागकर औरों को जगाओ। मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिए जो भारत के ग्रामों में फैलकर देशवासियों की सेवा में खप जाएं।" विवेकानंद ने देशवासियों में ही ईश्वर को देखा था। उन्होंने कहा था कि इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मंदिरों में स्थापित कर दिया जाए और मंदिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाए। विवेकानंद एक ऐसे समाज की कल्पना करते थे जिसमें देश, धर्म, नस्ल या जाति के आधार पर मनुष्यर-मनुष्य में अंतर न किया जाता हो। भारतीय संस्कृति की मुकम्मल छवि प्रस्तुत करनेवाले कई धारावाहिक व अन्य कार्यक्रम यू-ट्यूब भी उपलब्ध हैं। इस तरह सांस्कृतिक आदान-प्रदान में सोशल मीडिया की भी भूमिका बन रही है।


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